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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

अध्याय 11  चार आधार स्तम्भ

ब्रिटेन ने अपने जितने भी प्रतिनिधि भारत पर शासन करने के लिए भेजे, उनमें जार्ज नेथेनियल कर्जन सबसे बड़े, किन्तु सबसे अधिक कुख्यात शासक सिद्ध हुए, क्योंकि 1899 में यहां आने के बाद से वह अपने को दूसरा सीजर समझने लगे थे और इस प्रकार कुछ कर दिखाने के लिए बेचैन रहते थे। अपने 6 वर्ष के शासनकाल में वह भारतीयों के हित की भावना रखते रहे और साथ ही उनके प्रति अपमानसूचक दृष्टिकोण भी जो अन्तिम वर्षों में उनके भीतर प्रबल हो उठा था, क्योंकि उनका ख्याल था कि भारतीयों का काम सहमति से या बिना सहमति के मात्र अंगरेजों द्वारा शासित होना है। सेनाध्यक्ष (कमांडर-इन-चीफ) लार्ड किचनर से मतभेद होने के परिणामस्वरूप अपना इस्तीफा देने के बाद उन्होंने अपने बिदाई भाषण में स्पष्ट कहा कि मैंने भारतीयों को कोई राजनीनिक अधिकार या सुविधा इसलिए नहीं दी है कि 'मेरी समझ से ऐसा करना भारतीयों के हित में कोई बुद्धिमानी या राजनीतिज्ञता नहीं होगी।'

'ऐसे वरिष्ठ व्यक्ति' के शासन में असन्तोष और क्षोभ का फैलना स्वाभाविक ही था। खासकर 1905 में प्रस्तावित उनके बंगाल-विभाजन से तो एक बड़ा भारी बवंडर उठ खड़ा हुआ। बंगभंग से सारा देश दुखी था और बंगाल के हर सम्प्रदाय और तबके के लोगों ने इसका जोरदार विरोध किया। सभाएं की गईं, प्रार्थना और स्मरणपत्र दिए गए और ब्रिटिश संसद के पास भी एक भारी अर्जी भेजी गई, किन्तु इन सबका कोई असर न हुआ-सभी प्रयास कर्जन की इस 'अन्तिम भयंकर भूल' को सुधारने में असफल रहे। परिणामस्वरूप गोखले-जैसे नरम विचारों के राजनीतिज्ञ ने भी बनारस कांग्रेस में दिए गए अपने अध्यक्षीय अभिभाषण में कर्जन की तुलना औरंगजेब से की।

बंगाल की सारी जनता एक आदमी की शक्ल में विभाजन का विरोध करने को उठ खड़ी हुई। 16 अक्तूबर, 1905 को जब यह विभाजन लागू किया गया तो उस दिन शोक-दिवस मनाया गया। घरों में चूल्हे नहीं जले। लोग नंगे पांव चले-फिरे और अपना भाईचारे का सम्बन्ध प्रदर्शित करने के लिए उन्होंने एक-दूसरे के हाथों में राखी बांधी। कलकत्ता टाउन-हाल में आयोजित एक सभा में इतनी भीड़ जमा हो गई कि उसे चार भागों में विभक्त करना पड़ा। इस सभा ने बंगाल की एकता का 'चार्टर' स्वीकृत किया और विभाजन के विरोध में ब्रिटिश माल का आम तौर से बहिष्कार करने की घोषणा की।

तिलक ने बंगाल के इस जनजागरण का स्वागत किया और बहिष्कार के लिए राष्ट्र को तैयार करने के काम में जुट गए। उन्हें इस विभाजन में बुराई में भी एक भलाई दीखी, क्योंकि इसके कारण देश में एकता की लहर दौड़ गई। बंगाल का निमित्त देश का निमित्त हो गया और आन्दोलन-बहिष्कार, स्वदेशी, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज, के चार-सूत्री कार्यक्रम के रूप में विस्तृत-व्यापक हो गया। 15 अगस्त, 1905 को 'केसरी' में 'संकट आ पहुंचा'. शीर्षक अग्रलेख में तिलक ने लिखा : 'ऐसा लगता है कि बहुतों ने अभी तक बहिष्कार आन्दोलन का महत्व पूरा-पूरा नहीं समझा है। जब जनता और उसके विदेशी शासकों में संघर्ष चल रहा हो तो ऐसे साधन बिल्कुल आवश्यक हैं। ब्रिटेन के इतिहास में ही एक ऐसा उदाहरण है, जब राजा द्वारा अपनी मांग को पूरा करने से इन्कार किए जाने पर कुद्ध जनता ने उसे दण्डित किया था। हम न तो चाहते हैं और न हममें इतनी शक्ति है कि हम सरकार के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति के लिए उठ खड़े हों। लेकिन करोड़ों रुपए इस देश से जो बाहर चले जाते हैं, उन्हें रोकने का प्रयास क्या हम नहीं कर सकते? क्या हम नहीं देखते कि चीनियों द्वारा अमरीकी वस्तुओं के बहिष्कार से अमरीकी सरकार की आंखें कैसे खुल गई हैं। इतिहास साक्षी है कि गुलाम जनता कितनी भी असहाय क्यों न हो वह एकता, साहस और दृढ़ निश्चय के बल पर हथियार उठाए बिना ही अपने मदोन्मत्त शासकों को परास्त कर सकती है। इसलिए हमें विश्वास है कि इस संकट में देश के अन्य भागों की जनता बंगालियों का साथ अवश्य देगी।''

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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